भारतीय संस्कृति में सामाजिक न्याय की अवधारणा एवं बिहार के दलित उत्थान का समीक्षात्मक अवलोकन
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Abstract
सभ्यता और संस्कृति को पनपने तथा विकास करने में सदिओं लग जाते हैं। यहाँ जो लेखन है वह है अविकसित, अनपढ़, गरीबी से ओतप्रोत दलित समाज से, जो पीढ़ियों से अपना उद्धार के लिए रास्ता खोज रहा है, रास्ता ढूंढ़ रहा है, समाज और राष्ट्र से सहायता की उम्मीद की आशा लगाए बैठा है। मनुष्य की कुछ ऐसी आवश्यकताएँ होती हैं जिसका समाज के सभी सदस्यों के लिए समान महत्त्व होता है। ये आवश्यकताएँ सामाजिक जीवन की मौलिक आवश्यकताएँ होती । जो जनसमुदाय के कल्याण और उत्थान के लिए लाभकारी और हितकारी होती है। शूद्र दलित समुदाय अधिकांशतः संभवतया कृषि कार्यों में लगा रहता चलता है जे तत्कालीन समाज में वे भूमिहीन मजदूर थे। इसलिए अधिकांश लोगों को दूसरे के जमीन में काम करना पड़ता था। जो आज भी वही स्थिति है ।जब हम इन वर्गों के उद्धारक एवं समतामूलक समाज की स्थापना के बारे में विचार करते हैं।