वर्तमान में भारतीय शास्त्रीय संगीत की शिक्षा प्रणाली: विश्लेषनात्मक अध्ययन
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Abstract
मनुष्य का स्वभाव सदा ही परिर्वतनशील रहा है। मानवी विकास के अंन्तगत मनुष्य दिन-प्रतिदिन कुछ नवीन करने और खोजने में रूचित रहता है। कलायों में भी इस प्रकार का परिर्वतन आता रहा है। अगर संगीत कला की बात की जाए तो इसका मनुष्य के साथ गहरा स्मबन्ध है। वैदिक युग से लेकर वर्तमान युग तक संगीत शिक्षा में भी निरंतर परिर्वतन होते आ रहे है। प्राचीन काल में संगीत शिष्य केवल कुछ वर्गों तक ही सीमित था। औरतों को संगीत सिखने की अनुमति नहीं थी। संगीत शिक्षा हेतु लोगों के गुरुकुल में जाकर संगीतक गुरु के पास गुरुकुल में कई वर्षों तक रहना पड़ता था। गुरु जी पूर्ण दृढ़ता और मेहनत करने वाले शात्रों को ही संगीत की शिक्षा देते थे। उस समय गुरु मुख्य प्ररंपरा ही प्रचलित थी। शिक्षक द्वारा कोई प्रश्न पूछा जाना गुरू का अपमान समझा जाता था। समय के अन्तराल से 'घराना पद्धिती' का जन्म हुआ, इसके अंन्तगत अलग-अलग घरानों के उसताद कलाकार अपने शिक्षकों को अपने घराने की अलग-अलग खूबिओं से अवगत करवाते थे, तांकि उस घराने का संगीतक प्रचार पूर्ण रूप से हो सके।
लेकिन स्वत्रंत्रता के बाद संगीत शिक्षण में इतना परिवर्तन आया है कि पिछले 50 वर्षों में इतना नहीं हुआ। आज अलग-अलग संचार माध्यमों, प्रिन्ट मीडिया, सोशल मीडिया, इंटरनेट, टी.वी. और दूरर्दशन के माध्यम से संगीत शिक्षण बिलकुल आसान हो गया है। संगीत को एक मुख्य और चपल विष्य के रूप में स्नातकोर से लेकर विश्वविद्यालयों तक के पाठ्यकर्म में शामिल कर दिया गया है। संगीत के क्षेत्र में निरन्तर शोध कार्य हो रहे है। शिष्य की भिन्न-भिन्न पद्धितियों को प्रयोग में लाया जा रहा है। अगर पूर्ण रूप से अवलोकन किया जाए तो 21वीं सदी का यह समय यहा संगीत शिक्षण में एक महत्वपूर्ण कार्य निभा रहा है, वहीं दूसरी ओर संगीत केवल रोजगार का विष्य बनकर रह गया है। कलाकरों और उच्च कोटि के उस्तादों ने अपने आप को एक सीमित श्रेत्र में ही बाँध लिया है। आज के वर्तमान युग में संगीत शिक्षण का उदेश्य केवल मंच प्रस्तुति और धन संम्पत्ति तक सीमित हो गया है। अगर संगीत की इस अमुलय धरोहर को बचाना है तो हमें इन सभी कमियों का त्याग करना होगा तांकि संगीत शिक्षण और उचाईयों को छू सके।