हिन्दी दलित उपन्यासों में धार्मिक चेतना

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जुगेन्द्र सिंह, डॉ. सोनिया यादव

Abstract

            भारतीय समाज में धर्माश्रित सत्ता के अन्तर्गत दलित, गरीब और पिछड़े वर्ग के अशिक्षित लोगों को समानता और सदभाव के साथ जीवन यापन करने के लिए; सनातन धर्म के वैचारिक स्रोत से हिन्दुओं को सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करने का कार्य ऋषि, मुनि, तपस्वी, वेदाचार्य, सन्त, गुरू और ज्ञानी पंडित करेंगे, तभी संभव हो सकेगा। अन्यथा समाज में दलितों के जीवन में हुए सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और धार्मिक शोषण, अन्याय और अत्याचार के खिलाफ विद्रोह की भावना दलित चेतना के रूप में अभिव्यक्त होती रहेगी। यही दलित चेतना भारतीय समाज की वर्ण व्यवस्था के विरोध में तब तक खड़ी रहेगी, जब तक दलितों में जातिगत जागृति, स्वत्वभाव, आत्मसम्मान, अस्तित्व अन्य जातियों के समान नहीं हो जाता है।  सर्वप्रथम, डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने दलितों को जाग्रत करने के लिए सामाजिक राजनीतिक आर्थिक और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकारों हेतु दलित आन्दोलनों में भाषणों के माध्यम से खुलकर आवाज उठाई। उन्होंने समाज के पिछड़े और तिरस्कृत लोगों पर लेख लिखे और पुस्तकें भी लिखीं, साथ ही दलितोत्थान के लिए संविधान में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को सम्मानजनक अधिकार दिये। वैसे ही सहानुभूतिक या गैर- दलित उपन्यासकारों ने दलित पीड़ा को अपने उपन्यासों में बाखूबी उजागर किया है, लेकिन उसे स्वानुभूतिक दलित उपन्यासकारों ने दलित पात्रों के माध्यम से या स्वयं भोगी गई पीड़ा को धार्मिक चेतना के रूप में वर्णसत्ता को उधेड़कर चिंदी-चिंदी कर दिया। अतः हिन्दी दलित उपन्यासों में धार्मिक चेतना दलित जीवन के विभिन्न आयामों को स्पर्श करती हुई समाज में उदांत प्रभाव छोड़ती है।

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